मैंने रेत का दरिया मुठ्ठी बाँधी।
जग में यूँ हि राह चलूं,
विश्वास समय के साथ चलूं,
पर समय का पहिया आगे काफी,
न पाऊँ दिन रात चलूँ,
मैं भूल बिसर कर चलता जाऊँ,
सब कुछ खोऊँ कुछ न पाऊँ,
अस्त व्यस्त कर दे जीवन,
ऐसी चली ये आँधी,
मैंने रेत का दरिया मुठ्ठी बाँधी।
मैं मूरख अज्ञान गगन में,
विम्ब विलोकत वक्त बिताऊँ,
आगे बढनें की चाह अनोखी,
पर पीछे ही रह जाऊँ,
दुनिया में सब हास उडाएं,
शांत रहूँ कुछ कर न पाऊँ,
हास विलास पर हित पर,
फिर भी ढूंढू बैसाखी,
मैंने रेत का दरिया मुठ्ठी बाँधी।
भूल गया मैं जग में सब से
अलग थलग सा रहता हूँ,
भुला दिया मुझे जग में सब,
खुद से बस ये कहता हूँ,
समय का धारा बहती निश छण,
मैं अलग सा बहता हूँ,
पूरब पश्चिम का मेल अनोखा,
फिर भी मन है बैरागी,
मैंने रेत का दरिया मुठ्ठी बाँधी।
प्रभु मात पिता के चरणों में रहता हूँ,
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