January 2018

poem on consistent

#21-दृढ बनो

निकला था अलि भ्रमर में, अंजानें मंजिल की खोज, दिल में आश लगाए भटके, मन में मंजिल पानें की सोंच, राह भटकते रात हुई वह, लौट पडे निज गृह को तेज, स्वप्न में भी मंजिल को ढूंढे, निकल पडे गृह को छोड, निकला था अनि भ्रमर में, अंजाने मंजिल की खोज। आश न छोडे चाह […]

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farmer and nature

#20.किसान और प्रकृति

निर्बल दुर्बल खेतिहारी पर,सूखे की मार भारी है,पकी फसल पर वारिस पत्थर,और भी प्रलयंकारी है। वह झूल रहा है फंदो से,रब रूठ गया है बंदो से,ऐ रब अब तू सुन ले तेरे,बंदो पर संकट भारी है। चिडियों की चहक भी मन्द हुई,मुर्गों की बांग भी झूठी है,कहीं अति गर्मी बेमौसम बारिस,देखो प्रकृति हमसे रूठी है।

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happy holi

#19.हैप्पी होली

इतिहास के पन्नों तक सिमट कर रह जाएगी यह होली। रंगो की वह होली अब फीकी फीकी सी है, सहमी इंसानियत हर पल दूजे से, न पता किधर से रोष ठगे, इक विकास न जाने कैसे, कारण दूजे का आक्रोश जगे, जो भाव रंगों में दिखते थे, कभी नभ रंग कर, चेहरे में वो दुःभाव,

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