समाज की कुरीतियों से अब,
लड़ना हमनें सीख लिया,
फटेहाल समाज का मुह,
सिलना हमनें सीख लिया,
हक़ की हो जब बात तो,
छीनना हमनें सीख लिया,
इस बेदर्द समाज में खुलकर,
जीना हमनें सीख लिया।
कब तक यूँ दबी कुचली सी,
हालत में रहेंगे,
जमाने के डर नें सर,
नीचे करा रखा था,
डरा रखा था हर कदम,
सितम ढाया था बेवजह,
स्वातंत्र्य की महक जो,
फैली यूँ हर तरफ,
स्वछन्द रह कर कंधे से,
कन्धा मिलाया है हमने,
जब भी सर उठा कर,
चलनें की कोशिश की हमनें,
दबा दिया था डरा कर सर नीचे पर,
सर उठा कर चलना हमनें सीख लिया,
समाज की हर कुरीतियों लड़कर,
आखिर जीना हमनें सीख लिया।
–>सम्पूर्ण कविता सूची<–
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