ज़िन्दगी के पहलू क्यूँ इतने उलझे से लगते है?
क्या चेताती आसमान से गिरती वो आग कश्मीर में,
क्यों आखिर किसी हुद – हुद का डर यूँ सता रहा है,
क्या मुझे चैन से सांस लेने का हक़ नहीं?
मैं फैली हूँ उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कन्याकुमारी तक,
समेटें हैं मैंने विविध रंग अपने आगोश में,
विविधता में एकता की एक मिशाल हूँ विश्व में,
क्या मुझे चैन से जीने का हक़ नहीं?
मुझे बाहर से जितना डर है वह काम है,
भीतर ही भीतर खा रहे दीमक की तरह मुझे,
नोंच रहे हैं गिद्धों की तरह जिश्म को मेरे,
क्या मुझे स्वातंत्र्य का हक़ नहीं?
यूँ ही कर रहे वस्त्रहरण खुलेआम,
अंग प्रदर्शन की दौड़ में मुझे भी कर दिया है सामिल इन्होंने ,
क्या मुझे स्वच्छंद रहने का हक़ नहीं?
कहाँ सो गए ऐ बेटो मैं चुप हूँ पर रो रही हूँ,
दिखावे की इस दुनिया नें ताना है तमंचा मेरे सीने में,
कहते हैं मत रो लुटाती रह आबरू खुद की,
क्या मुझे रोने का हक़ नहीं?
आखिर कब मेरे ये बेटे उठेंगे,
कब मेरी ललकार सुनेंगे ,
न जाने वो कब कहेंगे-
“अब यूँ ही ललकार देश के इन कर्णों में गूंज रही,
भारत माता हम बेटों में आन-बान सब ढूंढ़ रही।“
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Hindi Poem on rights of india
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Bakhani, मेरे दिल की आवाज – मेरी कलम collection of Hindi Kavita
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Bakhani hindi kavita मेरे दिल की आवाज मेरी कलम
(Deshbhakti poem in hindi- Do I not DESERVE?)
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